Thursday, September 29, 2011

एक ख़्याल की तरह तुम हो भी और नहीं भी ...


काफ़ी दिन के बाद…

एक ख़्याल की तरह तुम हो भी
और नहीं भी

महसूस तो मुझे होता है जो
पलक पे मोती पिरोता है जो
उसे हाथ बढ़ा छू नहीं सकता
और भूल भी उसे नहीं सकता

अपने ही मन से ये बातें
बड़े जतन कर-कर के मैनें, छुपाए भी रखी
और कही भी
एक ख़्याल की तरह तुम हो भी
और नहीं भी

एक साथी जब तलाशा था
तब बना अजब तमाशा था
साथ नहीं बस याद मिली
खिली नहीं वो आस-कली

अब याद ही मेरी साथी है
चाह मेरे इस दिल की यूं, पूरी भी हुई
और रही भी
एक ख़्याल की तरह तुम हो भी
और नहीं भी

बिसराता नहीं है प्यार सच्चा
नाज़ुक बहुत ये धागा कच्चा
काश तुम इसे नहीं तोड़ती
अपनी राहों को नहीं मोड़ती

अब ये मेरा जीवन तो बस
आंसू की एक धारा है, जो थमी भी रही
और बही भी
एक ख़्याल की तरह तुम हो भी
और नहीं भी