ये डीग्री भी लेलो,
ये नौकरी भी लेलो,
भले छीन लो मुझसे USA का
विसामागर
मुझको लौटा दो वो कॉलेज का केन्टीन ,
वो चाय का पानी,
वो तीखा समोसा.........
.कडी धूप मे अपने घर से निकलना,
वो प्रोजेक्ट की खातीर शहर भर भटकना,
वो लेक्चर मे दोस्तों की प्रोक्सी लगाना,
वो सर को चीढाना ,
वो एरोप्लेन उडाना,
वो सबमीशन की रातों को जागना जगाना,
वो ओरल्स की कहानी,
वो प्रक्टीकल का किस्सा.....
बीमारी का कारण दे के टाईम बढाना,
वो दुसरों के Assignments को अपना बनाना,
वो सेमीनार के दिन पैरो का छटपटाना,
वो एक्साम में रातो को पसीना बहाना,
वो Exam के दिन का बेचैन माहौल,
पर वो मा का विश्वास - टीचर का भरोसा....
.वो पेडो के नीचे गप्पे लडाना,
वो रातों मे Assignments Sheets बनाना,
वो Exams के आखरी दिन Theater मे जाना,
वो भोले से फ़्रेशर्स को हमेशा सताना,
Without any reason, Common Off पे जाना,
टेस्ट के वक्त Table me मे किताबों को रखना,
ये डीग्री भी लेलो,
ये नौकरी भी लेलो,
भले छीन लो मुझसे USA का
विसामगर
मुझको लौटा दो वो का केन्टीन,
वो चाय का पानी....... shivendu Rai
कविता तो लिखना नहीं आता है ,पर भावनाओ को लिख देता हूँ ,कुछ लोग इसे रचनात्मकता कहते है |"कविता etc" वह जगह है जहां किसी मन की अभिव्यक्तियों को शब्दों में पिरो कर रखा गया है. कभी कभी मन कुछ कहता है. हम वाह्य दुनियां में इस तरह खो जाते है कि वह आवाज हमारे कानों तक नहीं पहुचती. फुर्सत में जब कभी हम अपने मन की बातें सुनते है तो वे बातें कुछ ऐसे ही होती है जैसे इस ब्लॉग में लिखी गयी है.
Saturday, September 5, 2009
Friday, March 27, 2009
कैसे हो मुखर सम्वेदना का स्वर समस्या है यही।
बसन्ती लहर भी
तूफान भी मैं हूं।
क़तर दूं पर असम्भव के मौत पर छाई
हुई मुस्कान भी मैं हूं।
मैं ही
ललाट पर बिखरी हुई
आभाहोंठ पर बैठी
हुई
धारदार मयान भी मैं हूं।कैसे हो बसर मुझमें समायाविषमता का घरसमस्या है
यही।मैं तूर्य हूं, मैं सूर्य हूंचन्द्रमा का शील हूंमैं हूँ अपरिमित बादलों से भरा गगन नील हूँ।र्मैं जानता हूँ कौन हूँपर मौन हूँ।मौन भी ऐसा न हो जो भंगदेखकर हर आदमी का तंगयह जो रोशनी है कर रही हर हादसे पर व्यंग्य।सोख लेता हूं सभी कुछ शान्त सामैं भयाक्रत आक्रान्त सा।चुप हूं सिमटकर एक कोने मैंकिसी मुरझे, मुरदे या क्लान्त सा।नहीं जाता मरजड़वत बनाता ज्वरसमस्या है यही।
बसन्ती लहर भी
तूफान भी मैं हूं।
क़तर दूं पर असम्भव के मौत पर छाई
हुई मुस्कान भी मैं हूं।
मैं ही
ललाट पर बिखरी हुई
आभाहोंठ पर बैठी
हुई
धारदार मयान भी मैं हूं।कैसे हो बसर मुझमें समायाविषमता का घरसमस्या है
यही।मैं तूर्य हूं, मैं सूर्य हूंचन्द्रमा का शील हूंमैं हूँ अपरिमित बादलों से भरा गगन नील हूँ।र्मैं जानता हूँ कौन हूँपर मौन हूँ।मौन भी ऐसा न हो जो भंगदेखकर हर आदमी का तंगयह जो रोशनी है कर रही हर हादसे पर व्यंग्य।सोख लेता हूं सभी कुछ शान्त सामैं भयाक्रत आक्रान्त सा।चुप हूं सिमटकर एक कोने मैंकिसी मुरझे, मुरदे या क्लान्त सा।नहीं जाता मरजड़वत बनाता ज्वरसमस्या है यही।
Thursday, January 29, 2009
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