Friday, March 27, 2009

कैसे हो मुखर सम्वेदना का स्वर समस्या है यही।
बसन्ती लहर भी
तूफान भी मैं हूं।
क़तर दूं पर असम्भव के मौत पर छाई
हुई मुस्कान भी मैं हूं।
मैं ही
ललाट पर बिखरी हुई
आभाहोंठ पर बैठी
हुई
धारदार मयान भी मैं हूं।कैसे हो बसर मुझमें समायाविषमता का घरसमस्या है
यही।मैं तूर्य हूं, मैं सूर्य हूंचन्द्रमा का शील हूंमैं हूँ अपरिमित बादलों से भरा गगन नील हूँ।र्मैं जानता हूँ कौन हूँपर मौन हूँ।मौन भी ऐसा न हो जो भंगदेखकर हर आदमी का तंगयह जो रोशनी है कर रही हर हादसे पर व्यंग्य।सोख लेता हूं सभी कुछ शान्त सामैं भयाक्रत आक्रान्त सा।चुप हूं सिमटकर एक कोने मैंकिसी मुरझे, मुरदे या क्लान्त सा।नहीं जाता मरजड़वत बनाता ज्वरसमस्या है यही।

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