काश! मैं कोई परिंदा होता
बहुत सी शाखाओं पर
बैठता
इतराता
गीत गाता
रिमझिम बरसात में
पंख भिगोता
पिहू-पिहू करता
बच्चों के हाथ न आता
फर्र से उड़ जाता
नदिया-नाले पार करता
पहाड़ों पर उड़ान भरता
ढूंढ ही लेता आश्रय अपना
कर लेता साकार
प्रकृति पाने का सपना।
दुनिया मेरी होती निराली
नहीं कोई देता
धर्म की गाली
अजान कर लेता
कहीं भी
किसी दर माथा
टिका देता
श्रद्धा रखता
मन में जीवित
मजहब के ताने
कपूर बना देता
हज करने की इच्छा है
मगर वो
मेरा देश नहीं है
गुरुद्वारे में सेवा
के लिए
सिर पर
पगड़ी
केश नहीं है।
उस दिन भी तो जलाई गई थी
एक मोटर-गाड़ी
पति और बच्चों के शव
देखती रह गई थी अबला बेचारी
इंसानी जुनून कैसे कोई माने
यह तो थी
धर्म के नाम पर
दानवी चिंगारी
आग की ताकत से अनजान
तमाशा
देख झूम रही थी
भीड़ सा॥
काश।! उस भीड़ में से
दो-चार परिंदे बन जाते
पहुंच जाते बादलों के पार
सारे नभ से जल भर लाते
मगर वहां तो सब इंसान(?) थे
डरपोक
कायर
उनमें कहां परिंदों जैसा प्यार निर्मल
उनमें कहां वो प्रेम का बहता जल
वो तो एक दूसरे को छलना जानते हैं
नहीं हो पाता और कुछ
मासूमियत का कत्ल कर डालते हैं।
आएगा कहीं दूर आकाश से
जब कोई परिंदा मुझसे मिलने
पूछूंगा
मानवीय जमीन का पता
जानता हूं
नहीं बता पाएगा
प्रतीक्षा करुंगा
अगले जनम की
फिर बनकर आऊंगा
एक परिंदा
शाखाओं पर फुदकूंगा
इतराऊंगा
मुस्कराऊंगा
इस दुनिया
के भविष्य को
प्यार से भरे
मीठे गीत सुनाऊंगा।
3 comments:
अच्छी पंक्तिया है ....
http://thodamuskurakardekho.blogspot.com
well said yaar kaash main bhi koi parinda hoti...lkn kya yeh aapki khud ki h..just jocking..but its to good...
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