
पाजेब तो है पांव में , झनकार नहीं है
रिश्तों का दिखावा है महज, प्यार नहीं है।
इस दौर में हुआ है, तरक्की का हाल ये
गलती पर अपनी कोई, शर्मसार नहीं है।
मिट्टी में जिसका, खून-पसीना हुआ गुलाब
वो आज भी बहार का, हकदार नहीं है।
हम रोज कुआं खोद कर, अपनी बुझाएं प्यास
ये दिल किसी मौसम का, तलबगार नहीं है।
सासों में सियासत की महक, तुझको मुबारक
हाथों में हुनर अपने, पुरस्कार नहीं है।
वैसे तो बड़ा बहस में, तहजीब का लिबास
आंचल मगर बदन पर, महकदार नहीं है।
कलियों के तड़पने की, खबर फैल तो गई
मधुकर चमन में कोई, सोगवार नहीं है।




