कांच चुभा
लहू गिरा जहा
वहा एक गुल खिला
सुर्ख लाल था उसका रंग
और पंखुडियां
सारी पारदर्शक
कांच के जैसी
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किनारे पर गिरी सीपियाँ
अन्थाग सागर समर्पित दोबारा
जब हम
वापस आये
उन में मोती हो
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डूबता सूरज बिम्ब
क्षितिज पे अपनी
छटाये छोडता जा रहा
उसके अस्तित्व का प्रमाण
ताकी कल फिर आना है
ये उसे याद रहे …
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