स्वतंत्र हूँ, पर सहमी, सहमी!
समान हूँ, पर सहमी, सहमी!
त्रेता में झाँका, तो सीता खड़ी वहाँ निहार रही है
एकटक; टस से मस होने नहीं देती आदर्शों से है
ढकेल देती है बरबस वह ‘आर्यपुत्र’ के पीछे-पीछे
जाने कहाँ चली जाती है पुरुषों की उफनाती गरमी
स्वतंत्र हूँ, पर सहमी, सहमी!
द्वापर में जाऊँ, गांधारी चक्षु पर पट्टी धरती है
बेची जाने पर भी पांचाली की सती-शिक्षा चलती है
सिखलाती दो युग की हैं सतियाँ मुझको खुद सहतीं-सहतीं
जाने कहाँ-कहाँ से आई पुरुषों की निष्कर्मी नरमी
स्वतंत्र हूँ, पर सहमी, सहमी।
जानूँ मैं, अपराध नहीं सीता का, वह युग ऐसा था
यह भी मानूँ, द्वापर भी सतियों का अपना एक समय था
युग बदला, बदले हैं युग के मूल्य, प्राण ना रहे रूढ़ि में
जाने कब तक बना रहेगा समाज यह मानव का जुल्मी
स्वतंत्र हूँ, पर सहमी, सहमी।
गृहसूत्रों को पढ़ बतलाते, देखो! है यह स्त्री-मर्यादा
धर्मसूत्र पुष्टि करते हैं और कड़ी करके मर्यादा
दोष नहीं उनका, वे थे अपने युग-मूल्यों के ही पोषक
जाने क्यों ये लाद रहे फिर उस युग को हम पर सब मरमी
स्वतंत्र हूँ, पर सहमी, सहमी।
समान हूँ, पर सहमी, सहमी!
त्रेता में झाँका, तो सीता खड़ी वहाँ निहार रही है
एकटक; टस से मस होने नहीं देती आदर्शों से है
ढकेल देती है बरबस वह ‘आर्यपुत्र’ के पीछे-पीछे
जाने कहाँ चली जाती है पुरुषों की उफनाती गरमी
स्वतंत्र हूँ, पर सहमी, सहमी!
द्वापर में जाऊँ, गांधारी चक्षु पर पट्टी धरती है
बेची जाने पर भी पांचाली की सती-शिक्षा चलती है
सिखलाती दो युग की हैं सतियाँ मुझको खुद सहतीं-सहतीं
जाने कहाँ-कहाँ से आई पुरुषों की निष्कर्मी नरमी
स्वतंत्र हूँ, पर सहमी, सहमी।
जानूँ मैं, अपराध नहीं सीता का, वह युग ऐसा था
यह भी मानूँ, द्वापर भी सतियों का अपना एक समय था
युग बदला, बदले हैं युग के मूल्य, प्राण ना रहे रूढ़ि में
जाने कब तक बना रहेगा समाज यह मानव का जुल्मी
स्वतंत्र हूँ, पर सहमी, सहमी।
गृहसूत्रों को पढ़ बतलाते, देखो! है यह स्त्री-मर्यादा
धर्मसूत्र पुष्टि करते हैं और कड़ी करके मर्यादा
दोष नहीं उनका, वे थे अपने युग-मूल्यों के ही पोषक
जाने क्यों ये लाद रहे फिर उस युग को हम पर सब मरमी
स्वतंत्र हूँ, पर सहमी, सहमी।
2 comments:
achchhe bhav hain
shubh deewali
Bahut hi badhiya kavita...
thoda idhar bhi najar dale :-
http://svatantravichar.blogspot.com/2010/11/blog-post_17.html
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