Saturday, February 18, 2012

मिला वो भी नहीं करते


मिला वो भी नहीं करते, मिला हम भी नहीं करते
दगा वो भी नहीं करते, दगा हम भी नहीं करते
उन्हें रुसवाई का दुख, हमें तन्हाई का डर
गिला वो भी नहीं करते, शिकवा हम भी नहीं करते
किसी मोड़ पर मुलाकात हो जाती है अक्सर,
रूका वो भी नहीं करते, ठहरा हम भी नहीं करते
जब भी देखते हैं उन्हें, सोचते हैं कुछ कहें उन्हें
सुना वो भी नहीं करते, कहा हम भी नहीं करते
लेकिन यह सच है कि दोस्ती उन्हें भी है हमसे
इकरार वो भी नहीं करते, इज़हार हम भी नहीं करते

Thursday, February 9, 2012


ये कैसा जीवन है
जो मैं जी रहा हूँ
दो परतों में लिपटा
जिसके एक शिरे पर मैं
और दूसरे पर तुम
बीच में रोशनी और अंधेरों के
बीच की ये अदृश्य सीमा
अंधेरों की चादर में लिपटा
मेरा अंतर्मन
पाना चाहता है तुम्हें
तुम्हारा होकर भी मैं
कहाँ हो पाया तुम्हारा!

मैंने तो
सीमाओं से मुक्त
आकाश चाहा था
जहां सिर्फ और सिर्फ
तुम हो और तुम्ही में निहित हो
मेरा वजूद

रोशनी तुम्हारे गुप्त अंधेरों से
होकर ही आती है
धीरे-धीरे धकेल रही है
मेरी साँसें अंत की ओर
मैं अग्रसर हूँ उन्ही अंधेरों की ओर
जहां से तुम्हारी अलौकिक रोशनी
मेरी गुजरी सांसों को
रोशन कर रही थी...

Saturday, February 4, 2012


क्षितिज का विराट भाल सूरज की लाल लाल बिंदी से दमकेगा
नियमित नाटक का जीवन की पुस्तक का इक पन्ना पलटेगा

इस पुस्तक के पन्नों पर हर दिन नई कहानी होगी
कुछ जानी सी भी होगी और कुछ अनजानी होगी
हर इक पल हर इक छिन, हर रोज़ नया इक दिन धीरे से निकलेगा
नियमित नाटक का जीवन की पुस्तक का इक पन्ना पलटेगा

रोजी-रोटी का ताना बाना सूरज ढलना शशि का आना
ये चक्र चलेगा ऐसे ही रोक सका कब इसे ज़माना

हर दिन के काम से थकी हुई शाम से फिर दिन नया उगेगा
नियमित नाटक का जीवन की पुस्तक का इक पन्ना पलटेगा

अगर गम आज मिला है खुशी भी कभी मिलेगी
असफल हो आज कभी तो सफलता हाथ लगेगी

अगर तस्वीर बदलनी है और तकदीर बदलनी है करना संघर्ष पड़ेगा
नियमित नाटक का जीवन की पुस्तक का इक पन्ना पलटेगा

संघर्ष करो पर इतना ही जिस से सुखमय बीते जीवन
सूरज बनो मगर फिर भी शीतल करती रहे किरण

अपने सुख भूल के औरों को खुशी दे, तभी तो आनंद मिलेगा
नियमित नाटक का जीवन की पुस्तक का इक पन्ना पलटेगा

सूरज को भी संध्या होते आख़िर ढलना होता है
नियति के इसी छलावे से सबको छलना होता है
चक्रव्यूह से जीवन के अपने ही अंतर्मन से कौन भला बच निकलेगा
नियमित नाटक का जीवन की पुस्तक का इक पन्ना पलटेगा

पलट पलट कर सारे पन्ने आखिर वो दिन आएगा
कभी ना उगने की खातिर सूरज उस दिन ढल जाएगा

अंतिम अंक ये नाटक का अंतिम पन्ना पुस्तक का अब कौन भला पलटेगा
ख़त्म हुआ नाटक भी ख़त्म हुई पुस्तक भी अब इसको कौन पढ़ेगा