
ये कैसा जीवन है
जो मैं जी रहा हूँ
दो परतों में लिपटा
जिसके एक शिरे पर मैं
और दूसरे पर तुम
बीच में रोशनी और अंधेरों के
बीच की ये अदृश्य सीमा
अंधेरों की चादर में लिपटा
मेरा अंतर्मन
पाना चाहता है तुम्हें
तुम्हारा होकर भी मैं
कहाँ हो पाया तुम्हारा!
मैंने तो
सीमाओं से मुक्त
आकाश चाहा था
जहां सिर्फ और सिर्फ
तुम हो और तुम्ही में निहित हो
मेरा वजूद
रोशनी तुम्हारे गुप्त अंधेरों से
होकर ही आती है
धीरे-धीरे धकेल रही है
मेरी साँसें अंत की ओर
मैं अग्रसर हूँ उन्ही अंधेरों की ओर
जहां से तुम्हारी अलौकिक रोशनी
मेरी गुजरी सांसों को
रोशन कर रही थी...
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