
क्षितिज का विराट भाल सूरज की लाल लाल बिंदी से दमकेगा
नियमित नाटक का जीवन की पुस्तक का इक पन्ना पलटेगा
इस पुस्तक के पन्नों पर हर दिन नई कहानी होगी
कुछ जानी सी भी होगी और कुछ अनजानी होगी
हर इक पल हर इक छिन, हर रोज़ नया इक दिन धीरे से निकलेगा
नियमित नाटक का जीवन की पुस्तक का इक पन्ना पलटेगा
रोजी-रोटी का ताना बाना सूरज ढलना शशि का आना
ये चक्र चलेगा ऐसे ही रोक सका कब इसे ज़माना
हर दिन के काम से थकी हुई शाम से फिर दिन नया उगेगा
नियमित नाटक का जीवन की पुस्तक का इक पन्ना पलटेगा
अगर गम आज मिला है खुशी भी कभी मिलेगी
असफल हो आज कभी तो सफलता हाथ लगेगी
अगर तस्वीर बदलनी है और तकदीर बदलनी है करना संघर्ष पड़ेगा
नियमित नाटक का जीवन की पुस्तक का इक पन्ना पलटेगा
संघर्ष करो पर इतना ही जिस से सुखमय बीते जीवन
सूरज बनो मगर फिर भी शीतल करती रहे किरण
अपने सुख भूल के औरों को खुशी दे, तभी तो आनंद मिलेगा
नियमित नाटक का जीवन की पुस्तक का इक पन्ना पलटेगा
सूरज को भी संध्या होते आख़िर ढलना होता है
नियति के इसी छलावे से सबको छलना होता है
चक्रव्यूह से जीवन के अपने ही अंतर्मन से कौन भला बच निकलेगा
नियमित नाटक का जीवन की पुस्तक का इक पन्ना पलटेगा
पलट पलट कर सारे पन्ने आखिर वो दिन आएगा
कभी ना उगने की खातिर सूरज उस दिन ढल जाएगा
अंतिम अंक ये नाटक का अंतिम पन्ना पुस्तक का अब कौन भला पलटेगा
ख़त्म हुआ नाटक भी ख़त्म हुई पुस्तक भी अब इसको कौन पढ़ेगा
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