Saturday, September 27, 2008

मेरे घर चलोगे

वहाँ कोने में अकेला खड़ा है
मेरा बल्ला और कब से खपरैल पर अटकी पड़ी है भाई की गेंद
घर चलो उसे उतारेंगे,
बहलेगा वही मेरे पड़ोस में फिरता है
एक पोटली वाला उसने अपने बोरे में छुपा के रखे है
कितने बचपन घर चलो
उससे थोड़ी कविता उधार मांग आएंगे वहीं रास्ते में जो पड़ता है
बूढ़ा पीपल उसके नीचे दिन भर सोयी रहती
है रात घर चलो उसे जगाकर पूछेंगे चाँद का पता तुम कह रह थे
कल-बड़ी गर्मी है यहाँ ?
वहाँ भी सर्दियों में भी बर्फ नहीं
पड़ती कभी शायद अभी भी पत्तों पर गिरती हो
ओस घर चलोअंगुलिओं पर मोती का फिसलना देखेंगेयहाँ चुभता है
सूरज बहुतघर
माँ ने रोशनदान में थोड़ी धूप छुपा रखी
है बोलो ना, मेरे घर चलोगे?

मेरी सबसे प्यारी कविता

आज सुबहाकुछ यूँ हुआ किबारिश के पानी के तालाब मेंतैरती दिखी एक कागज़ की नावऔर वही खड़ी ताली बजातीहंस रही थी छोटी बहनवो नावदरअसल एक कविता थीजो उतारी थी मैंने कागज़ परकल रात हीकविता में कई नए शब्द थेऔर नए भाव भीप्रमथ्यु के दर्द की बात थीऔर अंधेरे -उजालों की बातें भीसफेदपोशों की धज्जियां भी थींऔर जिंदा जलाये जाते मुर्दों का ज़िक्र भी थाबातें बहुत सारी थीं जहान भर कीकुछ ऐसी ही थीवो कविताजो फिलहालतैर रही थी बारिश के जमे पानी मेंगंदले शब्द घुल रहे थे उथले पानी मेंऔर मैं,मैं देख रहा था दम साधेकि कैसेएक कविता को तैरते देखहंस रही थीमेरी सबसे प्यारी कविता

रसभरी (किशोर प्रेम की कोमलांगी कहानी)

बहुत दिनों बाद इस शहर में रसभरी बिकती देखी। मैं कार चला रहा था, पत्नी व बच्चे भी साथ थे किसी उत्सव में शामिल होने जा रहे थे। रसभरी खरीदने खाने की इच्छा थी परन्तु पत्नी ने साज-सिंगार मे इतनी देर कर दी थी कि अगर मैं गाड़ी रोकता तो और देर हो जाती, इसलिये चाहकर भी गाड़ी नहीं रोक सका।हालाँकि तथा-कथित अभिजात्य वर्ग में शामिल होकर, मशीनी जिन्दगी जीते-जीते, मैं भी इन सब्जियों-फलों को जो अक्सर गाँव-देहात या कस्बों में मिलती है, का स्वाद लगभग भूल ही चुका था। फिर भी मन में दबी रसभरी दो दिन से मेरे पीछे लगी थी। मैं अस्पताल आते-जाते उसी सड़क से तीन बार गुजर चुका था और हर बार मेरी निगाहें उस रेहड़ी वाले को ढूंढ़ती रही थीं, फल-सब्जी की दुकान पर भी पता किया पर रसभरी नहीं मिलीं।आज अचानक दोपहर को अस्पताल से एक सीरियस मरीज़ देखने का बुलावा आने पर मैं अस्पताल जा रहा था कि वो रसभरी की रेहड़ी ठेलता हुआ सामने से आता दिखा। मैंने गाड़ी रोकी तब तक वह काफी दूर निकल गया था। आज तो मेरा बचपना मुझ पर हावी था, मैंने उसकी और दौड़ते हुए आवाज दी 'ओ! रसभरी!'उसके लगभग दौड़ते पाँव थम गये। मैं उसके पास पहुंचा ही था कि उसने तराजू तान दी बोला 'कितनी'?मैने बिना सोचे कहा 'आधा-किलो।'उसने तोलकर कागज के लिफाफे में डालकर मुझे पकड़ाते हुए कहा 'बाइस रुपये'। मैंने पचास का नोट दे दिया। वह गल्ले से पैसे निकाल रहा था तो मैने पूछा 'रसभरी और कहीं नहीं मिली शहर में तुम कहां से लाते हो' उसने पैसे वापिस करते हुए कहा 'दिल्ली से' और चलता बना जैसे उसे किसी की परवाह ही न हो। देखा तो वह रेहड़ी धकियाए काफी दूर जा चुका था।अस्पताल से घर लौटने पर मरीज देखने के चक्कर में रसभरियों को भूल ही गया। रात सोने लगा तो अचानक याद आया तो मुहं से निकला 'अरे! मेरी गाड़ी में रसभरियां थी उनका क्या हुआ? पत्नी ने करवट बदलते हुए कहा 'नौकर ने निकालकर फ्रिज में रख दी होगी'।हे राम ! रसभरी फ्रिज में, मेरा दिल बैठ गया। मैं भागा रसोई की और।मुझे फ्रिज में रखे फल व मारचरी [शव] ग्रह में रखी लाश में, एक अदभुत साम्य का अहसास होता है। मुझे लगता है कि फ्रिज में जाकर फल-सब्जियां मर जाती हैं। उनमें अपना स्वाद, अपनी खूशबू न रहकर फ्रिज का ठण्डापन हावी हो जाता है। शायद यह मेरे देहात में बीते बचपन के कारण हो। वहां तो बस ताजा फल-सब्जियां खाने का रिवाज होता था। पर इधर कुछ बरसों से, काम की भरमार, जिम्मेदारियों के बोझ तथा पत्नी के अनुशासन के नीचे दबकर, मैं अपने आप को खो बैठा था।पर आज रसभरी का फ्रिज में रखा जाना सुनकर मेरा दिल दहल गया था। क्या सचमुच रसभरी की लाश मिलेगी फ्रिज में? वितृष्णा सी होने लगी।पर मैंने, भुलक्कड़ नौकर को धन्यवाद दिया, जब रसभरी का लिफाफा, रसोई की सिलपर रखा देखा।लिफाफा उठाकर, वापिस बेडरूम में आ गया और लिफाफे से, निकालकर रसभरी मुँह में रखी। आ हा! क्या रस की फुहार फूटी मेरे मुँह में, अजीब सा मीठा खटास, ना नीम्बू, ना सन्तरा, ना आम, रसभरी का स्वाद, रसभरी खायेबिना नहीं जाना जा सकता।पत्नी ने मेरी और करवट लेकर कहा 'अरे! कम से कम, धो तो लेते।' अब उसे कौन समझाए कि ऐसे बाँगरू देहाती फलों को स्नान नहीं करवाया जाता? उनके ऊपर पड़ी धूल की परत का अपना स्वाद है, अपना आनन्द है।मनुष्य की एक आदत बड़ी अजीब है। किसी को भूलता है तो ऐसे जैसे उसका कोई अस्तित्व ही नहीं था। याद करने पर आता है तो छोटी सी बात, छोटी सी घटना को उम्रभर कलेजे से लगाये-चिपकाए जीए चला जाता है।रसभरी खाते-खाते मेरी एक पुरानी टीस जो यादों की सन्दूक में कहीं बहुत नीचे छुप-खो गई थी, उभर आई।बचपन जिस कस्बे में बीता था, वह उस जमाने में फलों के बागों के लिए दूर-दूर तक प्रसिद्ध था। उस दिन से पहले मुझे रसभरी कभी अच्छी नहीं लगी थी जबकि घर-घर क्या कस्बे के अधिकांश लोग, रसभरियों के पीछे पागल थे और अनवर मियां के बाग की मोटी रसभरियां तो ऐसे बिकती थीं, जैसे कर्फ्यू के दिनों में दूध।एक अजीब मिठास लिये रसभरियों का, कसैला स्वाद मुझे कभी नहीं भाया था। हाँ उन्हें देखना अलबत्ता मुझे अच्छा लगता था; उन्हें देख मुझे यूँ लगता था जैसे कोई गदराया बदन, कल्फ लगी मलमल की साड़ी से बाहर निकला जा रहा हो। मुझे रसभरी के झीने मुलायम कवच को छूना भी भला लगता था। उसके चिकने बदन पर हाथ फिराना मुझे एक अजीब किस्म का सुख देता था, जिसे शायद फ्रायड महाशय ही शब्द दे पाएँगे।उस दिन चैम्बर वाली धर्मशाला के सामने वह रेहड़ीवाले से रसभरी तुलवा रही थी और साथ-साथ रसभरी छील-छीलकर खाती जा रही थी। उसने कल्फ लगा, कॉटन का सफेद स्कर्ट व सन्तरी रंग की टॉप पहन रखी थी, मुझे उसमें और रसभरी में एक अजीब समता लगी थी ।वह मेरा पहला प्यार थी। इस बात का यह मतलब कतई नहीं है कि मैने बहुत से प्यार किये हैं। वह यानी 'मेरा पहला प्यार' हमारे घर से थोड़ी दूर पर रहती थी। आपने रेलवे रोड़ पर सचदेवा जनरल स्टोर तो देखा होगा, जिसका गोरा-चिट्टा मालिक, बालों को खिज़ाब से रंगकर, पत्थर की प्रतिमा सा, काउंटर पर बैठा रहता था। उसके चेहरे के स्थितप्रज्ञ भाव केवल किसी खास अमीर ग्राहक के आने पर ही बदलते थे। वरना वह एक आँख से दुकान के नौकरों व दूसरी से सड़क पर अपना अबोल हुक्म चलाता प्रतीत होता था।उसकी दुकान सबसे साफ-सुथरी व व्यवस्थित दुकान थी, हर चीज इतने करीने रखी सजी होती थी, दुकान के नौकर भी वर्दी पहने होते थे, इन सब बातों के होते आम ग्राहक तो डर के मारे दुकान पर चढ़ते ही नहीं थे।उसी सचदेवा जनरल स्टोर के सामने एक होटल था, जी हाँ, सारे शहर में यही एक होटल था उन दिनों,बाकी सारे वैष्णो ढाबे थे। इस होटल के बाहर जालीदार छींके में मुर्गी के झक-सफेद अंडे टंगे रहते थे और शीशे के दरवाजे के भीतर हरी गद्दियों वाली कुर्सीयां, लाल रंग के मेजपोशों वाली मेजों के साथ लगी दिखती थी। कुल मिलाकर हमें वह फिल्मों वाला नजारा लगता था। मुझे बहुत बाद मालूम हुआ कि वह होटल नहीं, रेस्तराँ था। पर तब वह शहर का एक मात्र होटल था जहाँ सामिष भोजन मिलता था।वह इसी होटल के ऊपर रहती थी। मैं तब दसवीं कक्षा में पढ़ता था, नई-नई मसें भीगीं थी। मन में एक अजीब हलचल रहने लगी थी, जिन लड़कियों को मैं पहले घास भी नहीं डालता था अब उन्हें नजर चुराकर देखना मुझे अच्छा लगने लगा था। उन्हीं दिनों मैंने भाटिया वीर पुस्तक भँडार से किराये पर लेकर चन्द्रकान्ता व चंद दीगर जासूसी उपन्यास पढ़ डाले थे।मुझे वह चंद्रकान्ता लगने लगी थी। उसकी चाल में एक अजीब मादकता थी, मैं उसकी एक झलक पाने के लिये बिना बात बाजार के चक्कर लगाने लगा था, तथा जब वह रसभरी खरीदकर, अपने चौबारे चढ़ जाती थी, तो मैं रेहड़ी से रसभरी लेने पहुँच जाता था। रसभरी अब मुझे सभी फलों से अच्छी लगने लगी थी। पर मुसीबत यह थी कि रसभरी साल में दो तीन महीने आती थी।वह कौन सी कक्षा में पढ़ती थी? मुझे पता नहीं था, पर उसे रिक्शा में पढ़ने जाते देखना, मेरा रोज का काम हो गया था, हमारे मुहल्ले की इस उम्र की लड़कियों ने या तो पढ़ना छोड़ दिया था या उनका पढ़ना छुड़वा दिया गया था और वे घर-घुस्सू हो गई थीं। पर यह लड़की रिफ्यूजी याने पाकिस्तान से विस्थापित थी। और इन रिफ्यूजियों मे एक खास खुलापन था। वह रिकशा में ऐसे बैठती थी, जैसे कोई रानी रत्न-जड़ित रथ पर या कोई मेम विक्टोरिया में बैठी हो। सचदेवों का बड़ा लड़का सुरेन्द्र, मेरे साथ पढ़ता था, वह शाम को कभी-कभार अपनी दुकान पर बैठ जाता था, मैंने उसे अक्सर सुरेन्द्र से बातें करते देखा था, मैं उसका नाम भी नहीं जानता था, पर शर्म के मारे सुरेन्द्र से भी नहीं पूछ पाया था। वैसे भी सुरेन्द्र शोहदों की टोली में था और मैं किताबचियों की टोली में।शायद अब उसे भी पता चल गया था कि मैं उसे देखता रहता हूँ। अब वह भी कभी-कभी पलट कर मुझे देखने लगी थी। एक दिन मैं, रेलवे-क्रासिंग बन्द होने के कारण, फाटक के बाजू में पैदल-यात्रियों हेतु बने चरखड़े से, साइकिल निकाल रहा था, कि वह भी दूसरी और से उसमें से निकलने लगी। हमारी नजरें मिलीं, एक पहचान पल-भर के लिये कौंधी। फिर वह, मेरे हाथ पर हाथ रख कर चरखड़े से निकल गई। मैं सुन्न खड़ा रह गया था, उस छुअन के अहसास से। अगर पी़छे आता राहगीर मुझे न धकियाता, तो शायद मैं उम्र-भर वहीं खड़ा रह जाता।मैं वहाँ से चला तो गुनगुनाने लगा था 'हम उनके दामन को छूकर आये हैं,हमें फूलों से तोलिये साहिब'।अनेकों बार सूंघा था मैंने अपने उस हाथ को। मैंने तो अपने उस हाथ को चूमना भी चाहा था, पर मैं यह सोचकर नहीं चूम सका कि वह यह जानकर नाराज न हो जाये। आज उन बचकानी बातों को सोचकर हँसी आती है।हमारी नजरें मिलने का सिलसिला लगभग दो साल चला। वह सामने से आती दिखती तो मैं जान-बूझकर आहिस्ता चलने लगता कि उसे ज्यादा देर तक देख सकूं। वह भी मौका मिलते ही मुड़-मुड़कर मुझे देखती तथा किसी के आ जाने पर अपनी गर्दन को हल्का सा झटका देती जैसे अपनी जुल्फें सँभाल रही हो।एक बार तो पीछे मुड़कर देखते हुए वह मुस्कराई भी थी। उस वक़्त उसकी साफ-शफ़्फ़ाक बिल्लोरी आँखों मे एक चमक थी, एक पहचान थी, एक राज़ था, एक साझेदारी थी और भी जाने क्या-क्या था, शायद प्यार भी था। मुझपर कई दिन, एक अजीब सा नशा छाया रहा। फिर मुझे मेडिकल ऐन्ट्रेंस टेस्ट देने पटियाला जाना पड़ा। तीन दिन बाद ही लौट पाया था।ट्रेन रात को पहुँच। स्टेशन से मेरे घर का छोटा रास्ता दूसरा था पर मै उसके घर की तरफ से लौट रहा था । उसके घर में एक कमरे की बत्ती जल रही थी, मैं खड़ा हो गया। मैं वहीं खड़ा उस खिड़की को देखने लगा। बाजार के चौकीदार के टोकने पर ही घर गया था।उस रात के बाद वह मुझे कभी दिखाई नहीं दी। वह घर भी बन्द रहने लगा। मैं जाने क्यों उदास रहने लगा। वक़्त मेरी उदासी से बेखबर अपनी रफ़्तार से चलता गया।एक दिन मैंने देखा कि डाकिया उसके घर की सीढीयां चढ़ रहा था। फिर उसने एक खत उनके बरमदे में फेंक दिया और चलता बना। मैं शाम होने पर, सीढियों पर चढ़कर बरामदे में पहुँचा, वहाँ बेंत की दो टूटी कुर्सियां पड़ी थीं। पर खत शायद हवा उड़ा ले गई थी। एक कुर्सी पर एक छोटा सा चिथड़ा सा पड़ा था, उठाकर देखा तो वह एक जनाना रुमाल था। अनजाने में, मैं उसे सूंघ बैठा; मुझे उसमें वही गंध महसूस हुई, जो उसके छूने पर अपने हाथ मे आई थी।हालांकि वह रुमाल किसी और का भी हो सकता था। पर तब मुझे यकीन था कि वह उसी का है। उस रुमाल पर लाल व हरे रंग का फूल काढ़ा हुआ था। मैंने उसे अपनी किताब ग्रे'ज अनाटमी में रख लिया था। अनाट्मी का कोर्स खत्म होने पर भी मैने वह किताब नहीं बेची, हालांकि कई बार मुझे पैसे की किल्लत भी हुई थी।बरस पर बरस बीतते गये। यादों के आइने पर वक़्त की धूल की परत चढ़ गई और उसकी याद भी उसी की तरह खो गई थी। आज अगर रसभरी न खरीदता, खाता तो बचपन के मीठे कसैले, अतृप्त, असफल, अधूरे प्रेम की याद कैसे आती।

आतंकवाद के खिलाफ आवाज़ की 'ऑडियो-वीडियो' पहल

सड़कों पर पड़े लोथड़ों मेंढूँढ रहा फिरदौस है जो,सौ दस्त, हज़ार बाजुओं पेलिख गया अजनबी धौंस है जो,आँखों की काँच कौड़ियों मेंभर गया लिपलिपा रोष है जो,ईमां तजकर, रज कर, सज करनिकला लिए मुर्दा जोश है जो,बेहोश है वो!!!!ओ गाफ़िल!जान इंसान है क्या,अल्लाह है क्या, भगवान है क्या,कहते मुसल्लम ईमान किसे,पाक दीन इस्लाम किसे,दोजख है कहाँ, जन्नत है कहाँ,उल्फत है क्या, नफ़रत है कहाँ,कहें कुफ़्र किसे, काफ़िर है कौन,रब के मनसब हाज़िर है कौन,गीता, कुरान का मूल है क्या,तू जान कि तेरी भूल है क्या!!!!सबसे मीठी जुबान है जो,है तेरी, तू अंजान है क्यों?उसमें तू रचे इंतकाम है क्यों?पल शांत बैठ, यह सोच ज़रा,लहू लेकर भी तेरा दिल न भरा,सुन सन्नाटे की सरगोशी,अब तो जग, तज दे बेहोशी,अब तो जग, तज दे बेहोशी।

Monday, September 15, 2008

¨कवदंती है कि शिव बाबा ने इस गांव को एक वरदान तथा एक शाप दिया था, वरदान यह कि इस गांव में कोई आक्रांता नहीं आ सकता और श्राप था कि परिवार के दो भाइयों में से सिर्फ एक का ही वंश चलेगा। ये दोनों सडकें जहां एक-दूसरे को 90 अंश के कोण पर काटती हैं, वह मिझौडा चौराहा के नाम से जाना जाता है। इस चौराहे को सबसे पहले आबाद करने वाले लोगों में रामखेलावन परचून वाले, कलीम खां साइकिल मिस्त्री, मिठाई लाल मिठाई वाले, सरजूपान-बीडी-सिगरेट तथा गुटखा वाले, डा. जमशेद तो सभी प्रकार के इलाज के लिये पूरे जवार में जाने जाते हैं, जैसी मरीज की हैसियत वैसी दवा।
राम खेलावन परचून वाले की दुकान के किनारे एक विशालकाय बरगद का पेड है जिसके चारों ओर उन्होंने संतान की आशा में बरगद देवता के चारों ओर पक्का चबूतरा बनाकर पूर्वमुखी एक छोटा सा शंकर जी का मंदिर बना दिया है। दरारों तथा चबूतरे के बैठ जाने के कारण मंदिर भी एक ओर झुक गया है, मंदिर के शीर्ष पर लगा त्रिशूल जो आसमान को तनकर सीधा देखा करता था वह भी तिरछा हो गया है। इसी चबूतरे के पश्चिमी कोने पर कल्लू नाई की गुमटी का अस्तित्व है। उसकी कई जगह से टूटी-फूटी बाबा आदम के जमाने की कुर्सी पर बैठते ही आगंतुक का स्वर उभरता है-
- बाल कटवाना है। दाढी बनवानी है।
- मुन्डा करवाना है। रूसी बहुत हो गई है।
और जैसे ही उसके हाथों में कुर्सी पर बैठे व्यक्ति को स्पर्श करके उस्तरा या कैंची चलाना शुरू किया नहीं कि उस व्यक्ति को नींद आने लगती, कल्लू को व्यक्ति को हिला-डुला कर जगाना पडता।
- काका, सोइये नहीं! - दादा, आंख खोले रखिए! - मुन्नू, उस्तरा लग जायेगा, सोओ नहीं! एक दिन प्रधान जी की दाढी बनाने के बाद मिठाई लाल की दुकान पर चाय पीने चला गया, वहीं साइकिल मिस्त्री कलीम खां मिल गये। - मिस्त्री, आज आप से चाय पीने को मन कह रहा है, कल्लू बोला। कल्लू भाई, अभी तक बोहनी नहीं हुई है। तुम्हारे यहां तो सवेरे से ही भीड लगी है।
- हां मिस्त्री, दुआ करो इसी तरह भीड लगती रहे, सुमन का हाथ अबकी जाडा में जरूर पीला करना है।
- जरूर ठाकुर.. बिटिया जितनी जल्दी घर से चली जाय उतना ही अच्छा है।
- अच्छा अब चल मिस्त्री, गुमटी के पास दो-तीन लोग आ गये हैैं। चाय का पैसा मिठाई लाल को देकर वह अपनी गुमटी की ओर बढने लगा, गुमटी के अंदर प्रधान जी कुर्सी पर बैठे-बैठे अभी तक सो रहे थे। प्रधान जी ने हडबडा कर आंखें खोल दीं और उठते हुए बोले- तुम्हारे हाथ में जैसे जादू है। तुमने हाथ लगाया नहीं कि नींद आने लगती है।
- प्रधान जी, सब बगल वाले भोले शंकर की कृपा है।
प्रधान जी कल्लू को दाढी की बनवायी देकर टेलर की दुकान की ओर मुड गये।
वह मिझौडा चौराहे पर साप्ताहिक बाजार का दिन था। लोग सप्ताह भर का खाने का सामान तथा अन्य जरूरत की वस्तुएं इसबाजार से लेकर रख लेते हैं।
कल्लू की भी आज के दिन पौ-बारह रहती है, काफी कमाई हो जाती है। उसकी पत्नी कलावती दोपहर का भोजन चौराहे पर लाकर दे जाती है, आज भी वो खाना लेकर आयी थी लेकिन काम अधिक होने के कारण कल्लू ने कहा- किनारे रख दो बाद में खायेंगे।
कलावती खाने का गोल डिब्बा किनारे रख कर चली गयी, उसका घर कोटवा से आगे कोराडचक में था। भीड के कारण कल्लू को आज सिर उठाने की भी फुरसत नहीं मिली। शाम होते-होते भीड धीरे-धीरे काई की तरह छंटने लगी। कल्लू का नियम था कि वह शाम को सब्जी लेता था क्योंकि देहात से सब्जी बेचने आये लोग जब घर जाने लगते हैं तब बची हुई सब्जी सस्ते में बेच जाते हैं। आज कल्लू ने और दिनों की अपेक्षा कुछ अधिक सब्जियां खरीदी थीं क्योंकि कल उसकी बेटी सुमन के रिश्ते के लिए सोनावां से कुछ लोग आने वाले हैं। कल्लू ईदगाह के सामने तक ही पहुंचा था कि चीनी मिल की ओर से हवा से बातें करते एक ट्रक ने कल्लू को ऐसी टक्कर मारी कि वह कटे पेड की तरह धराशायी हो गया। ट्रक उसके सीने तथा सिर को रौंदता हुआ मिझौडा चौराहे की ओर तेजी से भागने लगा, लेकिन बाजार से लौट रहे कुछ लोगों ने उस ट्रक को किसी को रौंदते हुए देख लिया था। उन लोगों ने शोर मचाना शुरू किया। शोर सुनकर अच्छी खासी भीड सडक पर आ गयी, विवश होकर ड्राइवर को ट्रक रोकना पडा, ट्रक के रुकते ही भीड ने ट्रक को घेर लिया, इतनी देर में मिझौडा चौराहे की पुलिस चौकी से दो पुलिस वाले आ गये और ड्राइवर को ट्रक से उतार लिया कि भीड कहीं उसकी जान न ले ले। भीड के गुस्से को शान्त करने के लिए पुलिसिया चाल चलते हुए, पुलिस वालों ने उसको दो-तीन थप्पड भी मारे और बोला- साले.. शराब पीकर ट्रक चलाते हो। भीड का गुस्सा शांत होते न देख दोनों पुलिस वालों ने ड्राइवर को मोटरसाइकिल पर बैठा कर वहां से रफूचक्कर होना ही उचित समझा, भीड उत्तेजित होती ही जा रही थी, अपना गुस्सा ट्रक पर उतारा और उसे आग की लपटों के हवाले कर दिया, भीड दुर्घटना-स्थल की ओर बढने लगी, वहां जाकर लोग सन्न रह गये, अरे! यह तो कल्लू है। भीड से किसी की आवाज उभरी। कल्लू खून से लथ-पथ पडा था। उसकी जीवन-लीला समाप्त हो चुकी थी। यह खबर उसके घर तक पहुंची तो उसकी पत्नी बच्चों के साथ बदहवास सी घटना-स्थल पर पहुंची। उसे काठ सा मार गया। बच्चों की चीत्कार से वातावरण बोझिल होकर गमगीन हो गया..। सरकारी औपचारिकताओं के बाद दूसरे दिन जब कल्लू का निर्जीव शरीर लाया गया, तो ठाठें मारती भीड थी जो कल्लू के व्यवहार तथा लोकप्रियता की परिचायक थी। अंतिम संस्कार तथा अनुष्ठान सम्पन्न हो गये। एक दिन कलावती अपने घर के सामने झाडू लगाने के बाद एक कोने में बैठे थी। कलावती ने सुमन की ओर देखा और चिंताओं में खो गयी। सुमन भी मां को देखकर शायद सोचने लगी थी- माई, अब मेरा क्या होगा?
मां की ममता ने शायद सुमन के मन की आवाज को सुन लिया था, वह सुमन की ओर देखकर मन ही मन बोली- बेटी, मैं हूं न..?
वह मन ही मन कह तो गई कि मैं हूं ना..? लेकिन यकायक चौंक उठी क्योंकि न तो उसके पास खेती-बाडी थी और न ही रोजगार का कोई और साधन था। अंधेरे में परछाइयां भी साथ छोड देती हैं, नाते-रिश्तेदार भी मुंह मोड लेते हैं।
दिन बीतते गये और कलावती भी इन अनुभवों से गुजरते हुए अपनी मंजिल की तलाश में जुट गयी। और एक सुबह क्रान्तिकारी निर्णय लेते हुए उसने हाथों में कैंची, कंघा तथा ब्लेड वाला उस्तरा लिया और उसने सबसे पहले अपने पुत्र सुनील को कुर्सी पर बैठाकर उसके बाल काटना शुरू किया। आज से काफी पहले एक दिन की बात है कि जब कल्लू जीवित था, कलावती किसी बात पर मनोविनोद करती हुई बोली- तुम नाऊ ठाकुर हो तो मैं भी नाउन ठकुराइन हूं।
- तो क्या तुम चौराहे पर जाकर गुमटी में मेरी तरह बाल काट सकती हो..? दाढी बना सकती हो? क्यों नहीं? चुहल-चुहल में उसने कैंची तथा कंघा उठाया और अपने बेटे अनिल के बाल काटने लगी। कल्लू ने अपनी पत्नी की ओर देखा और मुस्कुरा कर कुछ सोचने लगा, अरे तुम तो सचमुच.. और फिर एक दिन तो हद ही हो गयी जब कल्लू शाम को अपनी दुकान बढा कर घर आया तो कलावती उसकी दाढी की ओर हाथ से इशारा करते हुए बोली- दाढी बढा कर साधू बनकर जंगली बाबा के मंदिर में बैठना है क्या..? - चार-पांच दिन से बडी भीड हो रही है, सहालग की वजह से। फुरसत ही नहीं मिलती कि अपनी दाढी बना लूं। - तुम तो नाउन ठकुराइन बनती हो तुम ही बना दो ना..? - एकदम बना सकती हूं।
- अरे..! नहीं.. नहीं। मैं तो ऐसे ही चुहल कर रहा था। कल्लू बोला। लेकिन कलावती ने गजब की मुस्कुराहट के साथ धीरे से कुछ कहा जिसे सुनकर वह लोट-पोट हो गया और बोला- अच्छा, अगर ऐसी बात है तो.. और कलावती सचमुच उसकी दाढी बनाने लगी। कल्लू हैरान सा उसे देखता रह गया।
आज कलावती ने मिझौडा चौराहे पर बिना किसी शर्म व हया के बाकायदा लोगों के बाल काटने तथा दाढी बनाने का काम शुरू कर दिया था और वह उस इलाके की पहली महिला नाई बन गयी। दूर-दूर वे लोग उसे देखने आते। सकुचाते हुए खाली कुर्सी की ओर बढते मगर कलावती के हुनर के कायल होकर लौटते। उसके इस आश्चर्यचकित करने वाले गैर-पारम्परिक क्रांतिकारी निर्णय पर उसके बिरादरी के लोग नाक-भौं सिकोडने लगे। कुछ लोग तो आग-बबूला हो रहे थे, बिरादरी से बाहर रहने की बातें कर रहे थे, लेकिन वह उनकी परवाह किये बिना अपनी मंजिल की ओर बढती रही..। धीरे-धीरे कल्लू की उस गुमटी में पहले जैसी ही भीड की रौनक फिर लौट आयी।

Friday, September 12, 2008

अन्धकार

 

यह आता सबके जीवन में ,
सबको बहुत बैर है इससे ,
जिसकी जिन्दगी में आया ,
समझो दुःख उसके लिए लाया ,
पर क्यों ? क्यों हम सब डरते है,
पर गज़ब है , देखकर कहती हूँ मै 
अगर आज अन्धकार है तो कल ,
होगा उजाला भी,
जो हमें देगा बहुत से फल.................................!!!!!!!

Thursday, September 4, 2008

आ जाओ...

एक दिन बाज़ार से एक कमीज़ लाया था तुमने ,
तुम्हारी यादों के धडकनों से उसकी जेब फट गयी,
शाम आ कर सिल जाओ उसे, फेंकने के पहले
एक रोज मेरे दिल पर अपने प्यार के बीज फेंके थे तुमने ,
अब उनपर तुम्हारे यादों से महकती कलियाँ खिली हैं ,
किसी रोज आकर देख जाओ , पतझड़ आने के पहले
एक दफा स्वेटर बुना था मेरे लिए तुमने ,
आज ये रुत कुछ सर्द सी हो गयी है ,
आ कर मफलर ही पहना जाओ , ठंड लगने के पहले
एक बार अपने गाँव के कुंये पर गुड खिला पानी पिलाया था तुमने,
अब कई बरसों से मुंह सुखा जा रहा है ,
आ कर पानी ही दे जाओ , दम घुटने के पहले
एक शाम घुटने के दर्द को फाये से सहलाया था तुमने,
आज वहाँ एक ज़ख्म भर आया है,
फ़िर आ उसे छू जाओ , मवाद आने के पहलेएक वक्त दफ्तर के समय नाश्ता बनाया था तुमने ,तब से बिन चाय के ही चला जाता हूँ ,किसी सुबह आ चुल्हा जला जाओ, रिटायर होने के पहले

कुंवारी बेटी का बाप

बेटी के जन्मदिन के शाम,मेरे आस की मोमबत्तियां बुझती हैं,उसकी बढ़ती उम्र के चढ़ते दिन मुझे,नजदीक आ रहे निवृत्ति की याद दिलाते हैं,बरस का अन्तिम दिन उसके मन में प्रश्नऔर मेरे माथे पर चिंता की रेखा छोड़ जाता है बेटी के साँवले तस्वीर पर बार बार हाथ फेरता हूँ,शायद कुछ रंग निखर आए,उसके नौकरी के आवेदन पत्र को बार बार पढता हूँ,शायद कहीं कोई नियुक्ति हो जाए,पंडितों से उसकी जन्म कुण्डली बार-बार दिखवाता हूँ,शायद कभी भाग्य खुल जाएहर इतवार वर की खोज में,पूरे शहर दौड़ लगा आता हूँ,भाग्य से नाराज़, झुकी निगाहों का खाली चेहरा ले घर को लौट जाता हूँ,नवयुवक के मूल्यांकन में भ्रमित मैं,अपने और इस जमाने के अन्तर में जकड़ जाता,वर पक्ष के प्रतिष्टा और परिस्थिती के सामने,अपने को कमजोर पा कोसता-पछतातारिश्तेदारों के तानों की ज्वाला से सुलग ,मित्रों के हंसी की लपट में भभक ,परिवार के असंतोष में झुलस,अंत में एक अवशेष सा रह जाता हूँइस जर्जर, दूषित, दहेज़ लोभी समाज से लड़नेवाले,किसी विद्रोही नवयुवक की तलाश करता हूँ,मैं परेशान एक कुंवारी बेटी का बाप,इस व्यवस्था के बदलने की मांग रखता हूँ

Teacher's Day

शिक्षक वह व्यक्ति है ,जो एक बगीचे को भिन्न-भिन्न रूप रंग के फूलों से सजाता है, जो हमे कांटों पर भी मुस्कुरा कर चलने को प्रोत्साहित करता है, हमे जीने की एक वजह समझाता है। हर दुःख दर्द में हमारे घाव को भर देता है, मेरा आप सब से सिर्फ़ यही कहना है कि -शिक्षक भगवान् से भी बड़ा है, हाँ शिक्षक को भगवान् ने ही बनाया है, लेकिन शिक्षक ने लाखों छोटे-छोटे अनमोल जीवन को सही मार्ग दिखाया है, ताकि वह अपने लक्ष्य का उद्‌घाटन कर सके।