Thursday, September 4, 2008

कुंवारी बेटी का बाप

बेटी के जन्मदिन के शाम,मेरे आस की मोमबत्तियां बुझती हैं,उसकी बढ़ती उम्र के चढ़ते दिन मुझे,नजदीक आ रहे निवृत्ति की याद दिलाते हैं,बरस का अन्तिम दिन उसके मन में प्रश्नऔर मेरे माथे पर चिंता की रेखा छोड़ जाता है बेटी के साँवले तस्वीर पर बार बार हाथ फेरता हूँ,शायद कुछ रंग निखर आए,उसके नौकरी के आवेदन पत्र को बार बार पढता हूँ,शायद कहीं कोई नियुक्ति हो जाए,पंडितों से उसकी जन्म कुण्डली बार-बार दिखवाता हूँ,शायद कभी भाग्य खुल जाएहर इतवार वर की खोज में,पूरे शहर दौड़ लगा आता हूँ,भाग्य से नाराज़, झुकी निगाहों का खाली चेहरा ले घर को लौट जाता हूँ,नवयुवक के मूल्यांकन में भ्रमित मैं,अपने और इस जमाने के अन्तर में जकड़ जाता,वर पक्ष के प्रतिष्टा और परिस्थिती के सामने,अपने को कमजोर पा कोसता-पछतातारिश्तेदारों के तानों की ज्वाला से सुलग ,मित्रों के हंसी की लपट में भभक ,परिवार के असंतोष में झुलस,अंत में एक अवशेष सा रह जाता हूँइस जर्जर, दूषित, दहेज़ लोभी समाज से लड़नेवाले,किसी विद्रोही नवयुवक की तलाश करता हूँ,मैं परेशान एक कुंवारी बेटी का बाप,इस व्यवस्था के बदलने की मांग रखता हूँ

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