कैसी है ये वेदना
लील रही है मेरी चेतना
पूरब से चढ़ते सूरज में
अवशोषित मेरी ऊष्मा
मुगलों की राजधानी में तुम्हे सहलाती तो होगी
प्रवासी पक्षी भी तुम्हे मेरा हाल कहते तो होंगे
ठिठके से भाव सिसकती संवेदना
ये 'सूरज' की गेंद से 'पवन' साथ मेरा खेलना
देखो मेरे त्रास से तुम्हारा ये अम्बर लाल है
मेरा बहुत बेहाल है
तुम कहाँ हो प्रिये .....
भोर देखी ना सांझ, खुशियाँ हुई बाँझ
बार बार पुकारता हूँ
तुम्हारे पास न होने को नकारता हूँ
होठ सूखे चले जाते हैं, नीर बहे चले जाते हैं
तुम कहाँ हो प्रिये ......
तुमने भी बहुत बहा लिया काजल
बहुत बरस लिए धनीभूत बादल
दहका लिए तन –मन
विरह वेदन बढ़ रहा अब “राय” का
मन हो रहा घायल
तुम कहाँ हो प्रिये .....
नित दिन बाट जोता हूँ, हर घाट घूमता हूँ
तुम्हे खोजता हूँ
धुन सी है तुम्हारी
तुम कहाँ हो प्रिये ...
ये 'सूरज' की गेंद से 'पवन' साथ मेरा खेलना
देखो मेरे त्रास से तुम्हारा ये अम्बर लाल है
मेरा बहुत बेहाल है
तुम कहाँ हो प्रिये .....
भोर देखी ना सांझ, खुशियाँ हुई बाँझ
बार बार पुकारता हूँ
तुम्हारे पास न होने को नकारता हूँ
होठ सूखे चले जाते हैं, नीर बहे चले जाते हैं
तुम कहाँ हो प्रिये ......
तुमने भी बहुत बहा लिया काजल
बहुत बरस लिए धनीभूत बादल
दहका लिए तन –मन
विरह वेदन बढ़ रहा अब “राय” का
मन हो रहा घायल
तुम कहाँ हो प्रिये .....
नित दिन बाट जोता हूँ, हर घाट घूमता हूँ
तुम्हे खोजता हूँ
धुन सी है तुम्हारी
तुम कहाँ हो प्रिये ...




