Monday, September 15, 2008

¨कवदंती है कि शिव बाबा ने इस गांव को एक वरदान तथा एक शाप दिया था, वरदान यह कि इस गांव में कोई आक्रांता नहीं आ सकता और श्राप था कि परिवार के दो भाइयों में से सिर्फ एक का ही वंश चलेगा। ये दोनों सडकें जहां एक-दूसरे को 90 अंश के कोण पर काटती हैं, वह मिझौडा चौराहा के नाम से जाना जाता है। इस चौराहे को सबसे पहले आबाद करने वाले लोगों में रामखेलावन परचून वाले, कलीम खां साइकिल मिस्त्री, मिठाई लाल मिठाई वाले, सरजूपान-बीडी-सिगरेट तथा गुटखा वाले, डा. जमशेद तो सभी प्रकार के इलाज के लिये पूरे जवार में जाने जाते हैं, जैसी मरीज की हैसियत वैसी दवा।
राम खेलावन परचून वाले की दुकान के किनारे एक विशालकाय बरगद का पेड है जिसके चारों ओर उन्होंने संतान की आशा में बरगद देवता के चारों ओर पक्का चबूतरा बनाकर पूर्वमुखी एक छोटा सा शंकर जी का मंदिर बना दिया है। दरारों तथा चबूतरे के बैठ जाने के कारण मंदिर भी एक ओर झुक गया है, मंदिर के शीर्ष पर लगा त्रिशूल जो आसमान को तनकर सीधा देखा करता था वह भी तिरछा हो गया है। इसी चबूतरे के पश्चिमी कोने पर कल्लू नाई की गुमटी का अस्तित्व है। उसकी कई जगह से टूटी-फूटी बाबा आदम के जमाने की कुर्सी पर बैठते ही आगंतुक का स्वर उभरता है-
- बाल कटवाना है। दाढी बनवानी है।
- मुन्डा करवाना है। रूसी बहुत हो गई है।
और जैसे ही उसके हाथों में कुर्सी पर बैठे व्यक्ति को स्पर्श करके उस्तरा या कैंची चलाना शुरू किया नहीं कि उस व्यक्ति को नींद आने लगती, कल्लू को व्यक्ति को हिला-डुला कर जगाना पडता।
- काका, सोइये नहीं! - दादा, आंख खोले रखिए! - मुन्नू, उस्तरा लग जायेगा, सोओ नहीं! एक दिन प्रधान जी की दाढी बनाने के बाद मिठाई लाल की दुकान पर चाय पीने चला गया, वहीं साइकिल मिस्त्री कलीम खां मिल गये। - मिस्त्री, आज आप से चाय पीने को मन कह रहा है, कल्लू बोला। कल्लू भाई, अभी तक बोहनी नहीं हुई है। तुम्हारे यहां तो सवेरे से ही भीड लगी है।
- हां मिस्त्री, दुआ करो इसी तरह भीड लगती रहे, सुमन का हाथ अबकी जाडा में जरूर पीला करना है।
- जरूर ठाकुर.. बिटिया जितनी जल्दी घर से चली जाय उतना ही अच्छा है।
- अच्छा अब चल मिस्त्री, गुमटी के पास दो-तीन लोग आ गये हैैं। चाय का पैसा मिठाई लाल को देकर वह अपनी गुमटी की ओर बढने लगा, गुमटी के अंदर प्रधान जी कुर्सी पर बैठे-बैठे अभी तक सो रहे थे। प्रधान जी ने हडबडा कर आंखें खोल दीं और उठते हुए बोले- तुम्हारे हाथ में जैसे जादू है। तुमने हाथ लगाया नहीं कि नींद आने लगती है।
- प्रधान जी, सब बगल वाले भोले शंकर की कृपा है।
प्रधान जी कल्लू को दाढी की बनवायी देकर टेलर की दुकान की ओर मुड गये।
वह मिझौडा चौराहे पर साप्ताहिक बाजार का दिन था। लोग सप्ताह भर का खाने का सामान तथा अन्य जरूरत की वस्तुएं इसबाजार से लेकर रख लेते हैं।
कल्लू की भी आज के दिन पौ-बारह रहती है, काफी कमाई हो जाती है। उसकी पत्नी कलावती दोपहर का भोजन चौराहे पर लाकर दे जाती है, आज भी वो खाना लेकर आयी थी लेकिन काम अधिक होने के कारण कल्लू ने कहा- किनारे रख दो बाद में खायेंगे।
कलावती खाने का गोल डिब्बा किनारे रख कर चली गयी, उसका घर कोटवा से आगे कोराडचक में था। भीड के कारण कल्लू को आज सिर उठाने की भी फुरसत नहीं मिली। शाम होते-होते भीड धीरे-धीरे काई की तरह छंटने लगी। कल्लू का नियम था कि वह शाम को सब्जी लेता था क्योंकि देहात से सब्जी बेचने आये लोग जब घर जाने लगते हैं तब बची हुई सब्जी सस्ते में बेच जाते हैं। आज कल्लू ने और दिनों की अपेक्षा कुछ अधिक सब्जियां खरीदी थीं क्योंकि कल उसकी बेटी सुमन के रिश्ते के लिए सोनावां से कुछ लोग आने वाले हैं। कल्लू ईदगाह के सामने तक ही पहुंचा था कि चीनी मिल की ओर से हवा से बातें करते एक ट्रक ने कल्लू को ऐसी टक्कर मारी कि वह कटे पेड की तरह धराशायी हो गया। ट्रक उसके सीने तथा सिर को रौंदता हुआ मिझौडा चौराहे की ओर तेजी से भागने लगा, लेकिन बाजार से लौट रहे कुछ लोगों ने उस ट्रक को किसी को रौंदते हुए देख लिया था। उन लोगों ने शोर मचाना शुरू किया। शोर सुनकर अच्छी खासी भीड सडक पर आ गयी, विवश होकर ड्राइवर को ट्रक रोकना पडा, ट्रक के रुकते ही भीड ने ट्रक को घेर लिया, इतनी देर में मिझौडा चौराहे की पुलिस चौकी से दो पुलिस वाले आ गये और ड्राइवर को ट्रक से उतार लिया कि भीड कहीं उसकी जान न ले ले। भीड के गुस्से को शान्त करने के लिए पुलिसिया चाल चलते हुए, पुलिस वालों ने उसको दो-तीन थप्पड भी मारे और बोला- साले.. शराब पीकर ट्रक चलाते हो। भीड का गुस्सा शांत होते न देख दोनों पुलिस वालों ने ड्राइवर को मोटरसाइकिल पर बैठा कर वहां से रफूचक्कर होना ही उचित समझा, भीड उत्तेजित होती ही जा रही थी, अपना गुस्सा ट्रक पर उतारा और उसे आग की लपटों के हवाले कर दिया, भीड दुर्घटना-स्थल की ओर बढने लगी, वहां जाकर लोग सन्न रह गये, अरे! यह तो कल्लू है। भीड से किसी की आवाज उभरी। कल्लू खून से लथ-पथ पडा था। उसकी जीवन-लीला समाप्त हो चुकी थी। यह खबर उसके घर तक पहुंची तो उसकी पत्नी बच्चों के साथ बदहवास सी घटना-स्थल पर पहुंची। उसे काठ सा मार गया। बच्चों की चीत्कार से वातावरण बोझिल होकर गमगीन हो गया..। सरकारी औपचारिकताओं के बाद दूसरे दिन जब कल्लू का निर्जीव शरीर लाया गया, तो ठाठें मारती भीड थी जो कल्लू के व्यवहार तथा लोकप्रियता की परिचायक थी। अंतिम संस्कार तथा अनुष्ठान सम्पन्न हो गये। एक दिन कलावती अपने घर के सामने झाडू लगाने के बाद एक कोने में बैठे थी। कलावती ने सुमन की ओर देखा और चिंताओं में खो गयी। सुमन भी मां को देखकर शायद सोचने लगी थी- माई, अब मेरा क्या होगा?
मां की ममता ने शायद सुमन के मन की आवाज को सुन लिया था, वह सुमन की ओर देखकर मन ही मन बोली- बेटी, मैं हूं न..?
वह मन ही मन कह तो गई कि मैं हूं ना..? लेकिन यकायक चौंक उठी क्योंकि न तो उसके पास खेती-बाडी थी और न ही रोजगार का कोई और साधन था। अंधेरे में परछाइयां भी साथ छोड देती हैं, नाते-रिश्तेदार भी मुंह मोड लेते हैं।
दिन बीतते गये और कलावती भी इन अनुभवों से गुजरते हुए अपनी मंजिल की तलाश में जुट गयी। और एक सुबह क्रान्तिकारी निर्णय लेते हुए उसने हाथों में कैंची, कंघा तथा ब्लेड वाला उस्तरा लिया और उसने सबसे पहले अपने पुत्र सुनील को कुर्सी पर बैठाकर उसके बाल काटना शुरू किया। आज से काफी पहले एक दिन की बात है कि जब कल्लू जीवित था, कलावती किसी बात पर मनोविनोद करती हुई बोली- तुम नाऊ ठाकुर हो तो मैं भी नाउन ठकुराइन हूं।
- तो क्या तुम चौराहे पर जाकर गुमटी में मेरी तरह बाल काट सकती हो..? दाढी बना सकती हो? क्यों नहीं? चुहल-चुहल में उसने कैंची तथा कंघा उठाया और अपने बेटे अनिल के बाल काटने लगी। कल्लू ने अपनी पत्नी की ओर देखा और मुस्कुरा कर कुछ सोचने लगा, अरे तुम तो सचमुच.. और फिर एक दिन तो हद ही हो गयी जब कल्लू शाम को अपनी दुकान बढा कर घर आया तो कलावती उसकी दाढी की ओर हाथ से इशारा करते हुए बोली- दाढी बढा कर साधू बनकर जंगली बाबा के मंदिर में बैठना है क्या..? - चार-पांच दिन से बडी भीड हो रही है, सहालग की वजह से। फुरसत ही नहीं मिलती कि अपनी दाढी बना लूं। - तुम तो नाउन ठकुराइन बनती हो तुम ही बना दो ना..? - एकदम बना सकती हूं।
- अरे..! नहीं.. नहीं। मैं तो ऐसे ही चुहल कर रहा था। कल्लू बोला। लेकिन कलावती ने गजब की मुस्कुराहट के साथ धीरे से कुछ कहा जिसे सुनकर वह लोट-पोट हो गया और बोला- अच्छा, अगर ऐसी बात है तो.. और कलावती सचमुच उसकी दाढी बनाने लगी। कल्लू हैरान सा उसे देखता रह गया।
आज कलावती ने मिझौडा चौराहे पर बिना किसी शर्म व हया के बाकायदा लोगों के बाल काटने तथा दाढी बनाने का काम शुरू कर दिया था और वह उस इलाके की पहली महिला नाई बन गयी। दूर-दूर वे लोग उसे देखने आते। सकुचाते हुए खाली कुर्सी की ओर बढते मगर कलावती के हुनर के कायल होकर लौटते। उसके इस आश्चर्यचकित करने वाले गैर-पारम्परिक क्रांतिकारी निर्णय पर उसके बिरादरी के लोग नाक-भौं सिकोडने लगे। कुछ लोग तो आग-बबूला हो रहे थे, बिरादरी से बाहर रहने की बातें कर रहे थे, लेकिन वह उनकी परवाह किये बिना अपनी मंजिल की ओर बढती रही..। धीरे-धीरे कल्लू की उस गुमटी में पहले जैसी ही भीड की रौनक फिर लौट आयी।

7 comments:

Kavita Vachaknavee said...

नए चिट्ठे का स्वागत है.
निरंतरता बनाए रखें.
खूब लिखें, अच्छा लिखें.

हिन्दिनी said...

वाह शिवेन्दु भाई, कलावती सी बीवी सबको मिले, अच्छी कहानी है. आप को यदि ब्लॉग बनाने, सजाने या कमाने से सम्बन्धित जानकारी चाहिए तो 'ब्लॉग्स पण्डित' पर जाएँ.
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شہروز said...

सलाम-नमस्ते!
ब्लॉग की दुनिया में हार्दिक अभिनन्दन!
आपने अपनी व्याकुलता को समुचित तौर से व्यक्त करने का प्रयास किया ही.
अच्चा लगा, इधर आना.

फुर्सत मिले तो आ मेरे दिन-रात देख ले

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रचना गौड़ ’भारती’ said...

kahanee ke liye badhaee.

washu pratap said...

ab iske bade me kya kahoon bhai, kuchh v kaha to mano tauhini hogi.

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